कुछ बहनें हैं, जो रोज़ सुबह अपनी वॉल पर डिप्रेशन की दुकान सजा कर बैठ जाती हैं. रोज़ मतलब, लिटरली रोज़. उनके पास बेसिक मुद्दा सिर्फ़ एक ही होता है, पुरुषों की निंदा, स्त्रियों पर हुये अत्याचारों की गाथा. आँसू, दुःख और रुदन. रोज़ वॉल पर शोकसभा जैसा मजमा लगा कर लाइक्स की खेती करती हैं. इसकी जड़ में अदम्य प्यास होती है संवेदनशील, कोमलहृदय और सेंसिटिव कहलाने की.
मनोविज्ञान की छात्रा रह चुकी हूँ, टीचर और कॉरपोरेट ट्रेनर भी थी, उसके हिसाब से आज जो भी लिखने जा रही हूँ, वह मेरे निजी जीवन और अनुभवों पर आधारित है.
सबसे पहले, इस बीमारी को कहते हैं Self Defeating Disorder. यह childhood trauma से ही जुड़ी होती है. इसमें मनोरोगी ख़ुद को ही सबसे अधिक प्रताड़ित करता है और दिखाता भी है, हर सिचुएशन में उसे निश्चित रूप से विफल होना होता है, ऐसे रिश्ते बनाता है जिसमें उसे disappointment ही हो. और इसी का उच्छिष्ट ये लोग सर्वत्र बिखेरती हैं. ताकि जो भी पढ़े, वह दुःख के सागर में गोता लगा ही ले.
आज थोड़ा अपनी इमेज से इतर शब्दों का प्रयोग भी कर सकती हूँ, जिसके लिये अग्रिम रूप से क्षमा माँगती हूँ. क्योंकि अंदर क्रोध इतना है कि संयत शब्दों में व्यक्त नहीं हो सकता.
तो जी, उनकी बात और उनका RR यह होता है कि मर्दों ने बेपनाह अत्याचार किये, जिसका हवाला वे उन पीढ़ियों से देती हैं जो बीत चुकी हैं. जिनको बीते एक युग बीत चुका है.
यह मान्य है कि औरतों को दबा कर रखा जाता था, दमित, शमित थीं. लेकिन वह कल का सत्य था, आज की हक़ीक़त बहुत अलग है, मेरी बात का विश्वास न हो तो किसी ऐसी महिला से बात कर देखें जो अपने बेटे या बेटों के लिये लड़की ढूंढ रही हो, पता चल जायेगा.
मैं शुरू से टीचर रही, और मैंने इतने बच्चों को पढ़ाया, और सदा लड़कियों को हर क्षेत्र में आगे पाया. पढ़ने से लेकर प्रेम प्रदर्शित करने तक में, वे आगे रहीं. अधिकतर ने ख़ूब पढ़ा और अपने करियर बना लिये.
मेरी फर्स्ट बैच से ले कर कॉरपोरेट ट्रेनिंग तक की लड़कियां मेरी लिस्ट में आज भी हैं. सुखी हैं अपने परिवार और बच्चों के साथ.
एक जगह एक दिन पढ़ा, कि औरतें सांप, बिच्छू के काटने से पीड़ा सहती रहीं, मगर उनको कोई दवा तीमारदारी नहीं मिली. इस बात से मुझे बड़ी हैरानगी हुयी, कि क्या किसी पुरुष को खेत में हल चलाते हुये, गाय गोरु, कोयर कांटा, रोपाई, बोआई, निराई, गुड़ाई, जुताई, कटाई करते हुये किसी विषैले जीव जंतु ने नहीं काटा? क्या बीती रात खेतों की रखवाली करते किसी विषैले जीव जंतु ने काटा नहीं?
फिर मैंने अपने घर की लाइब्रेरी में रखे हुये कुछ दुर्लभ ग्रन्थों को खंगाला. मेरी उत्सुकता चर्मोत्कर्ष पर थी.
बहुत खोजने पर मुझे श्री मद्भागवतजी से कुछ क्लू मिला.
कई युगों पहले एक बार दुनिया भर के सर्पों की महासभा बुलाई गयी थी, जिसमें सर्व सम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया गया कि देखो भाई, काटना है, तो सिर्फ़ औरतों को, मर्दों को बिल्कुल नहीं. और यह प्रस्ताव सारे विषधरों से साइन करवाया गया कि अब से दंश जेंडर बेस्ड रहेगा.
बल्कि एक नन्हें संपोले ने अपनी दुम उठा कर, (हाथ नहीं थे न) सवाल पूछा भी, कि श्रीमानजी यदि डाउट हो कि स्त्री है या पुरुष? तब उसे डपट कर कहा गया कि, वत्स, When in doubt, wait. जब तक sure न हो जाओ, शांत रहो.
यदि पति चूल्हे के लिये ईंधन, लकड़ी, चैला, रहठ्ठा, गोहरी तोड़ रहा है तो रुको, वेट करो. काटो तब, जब उसकी स्त्री हाथ लगाये.
तब से दुनिया भर में कभी किसी पुरुष को सांप ने नहीं काटा, बिच्छू भी दूर रहे. फिर कोई पुरुष अपनी किसी भी बीमारी से मृत्यु को प्राप्त नहीं हुआ. उनको कैंसर, ब्रेन स्ट्रोक, हैमरेज नहीं होता. यह बात दूसरी है कि तनाव और दबाव से हार्ट अटैक सारी दुनिया में पुरुषों को ही होते हैं महिलाओं की अपेक्षा.
इन लोगों का यही एक एजेंडा है.
इनको बेटी की शादी की चिंता में मरता, घुटता बाप नहीं दिखता, इनको रक्षाबंधन के लिये दो माह पहले से सैलरी बचाता भाई नहीं दिखता, दिन रात खटता पति नहीं दिखता, बेवक़्त से करियर की चिंता में गलता हुआ बेटा नहीं दिखता. इनको सुबह 6 बजे टिफ़िन बनाने वाली स्त्री दिखती है लेकिन सुबह 7 बजे लोकल ट्रेन में लटक कर दादर से वाशी जाता और रात को उसी लोकल ट्रेन से लटक कर पसीने से तर बतर कभी बॉस की झिड़की खाया, कभी हताशा से घिरा हुआ रात 9 बजे बेटी की दवा ले कर लौटता पति नहीं दिखता, इनको माँ और बहन के लिये 12 साल की उम्र में छोटू बना, मालिक की डांट, मार खाता, कभी sexual abuse झेलता बच्चा नहीं दिखता. नहीं दिखता क्योंकि इनका vision gender based है. Selective vision है.
इनके अपने रिश्ते अपने घर के किसी भी व्यक्ति से स्नेहिल नहीं होते होंगे, जिनको अपने पिता, भाई, ससुर, देवर, जेठ, पति, पुत्र से ही स्नेह नहीं, ममता नहीं, उनको प्रेम नहीं होता किसी से भी. इनके सर पर शायद कभी पिता ने स्नेह का स्पर्श न रखा हो, भाई ने कभी डांटा हो, लेकिन शाम को मनपसंद कुल्फ़ी ला कर खिलाया हो, जिस बड़े भाई से बेपनाह डर भी लगे और बेपनाह प्यार भी हो, जो बेटा कभी ज़िद से खाने बनवाये, मगर रात को माँ की तबीयत ख़राब हो तो दुकान खुलवा कर दवा भी लाये.
ये सुबह सुबह दुकान सजा कर बैठ जाती हैं, RR की.
ज्ञान देंगी, जब फ़ेसबुक प्रेमी लतिया दे, या पत्नी के पास
लौट जाये, तो डिप्रेशन कैसे संभालें, क्योंकि वह तो कमीना था, ये बड़ी भोली थीं, कि जान कर भी शादीशुदा आदमी के साथ involved रहीं.
उसको सिर्फ़ जिस्म चाहिये था, तो बहन तुमको क्या कमी थी जो उसके पीछे दिमाग़ के डॉक्टर के पास पहुंच गयीं? क्यों मैसेंजर से Whatsapp और व्हाट्सएप से Oyo तक पहुंच गयीं? अब RR लगा रही हो कि All men are &&.
What are you then?
तुमने अपने पति से कौन सी वफ़ा कर ली?
उसी की कमाई के पैसे का इंटरनेट चला कर, रात दिन उसी को कोस रही हो. #सुनो छाप कविताएं, #40पार की औरतों को एक दोस्त चाहिये छाप कविता गढ़ कर ख़ुद को justify करती हो. ग्रेट. ????????
उसपर से यह जानती हैं अच्छे से कि फ़ेसबुक पर आँसू बिकते हैं, इसलिये ये आंसुओं के सौदे करते करते कविताओं का भंडार रचती हैं, और वहां जा कर अच्छी ख़ासी भीड़ सर हिला कर #ज़रूरी कविता के तमगे बांट आती है.
इन लोगों को महाशिवरात्रि पर भूखा बच्चा दिखता है, उसकी पोस्ट करती हैं, अपने आप को संवेदनशील दिखाने वाले लोग पर्सनल जीवन में बला के क्रूर होते हैं. ये भूखे पिल्ले को एक कटोरी दूध न दें. कभी इनसे फ़ोन नंबर मांग कर देखिये, अपनी पोल खुलने के डर से कभी नहीं देंगे.
इनको फ़ेसबुक पर पीरियड के दर्द का रोना रोना है, वह दर्द तो आपको क़ुदरत ने दिया है, कोई क्या ही कर लेगा? यही कर के ख़ुद को सिर्फ़ एक लिजलिजा pathetic व्यक्तित्व दिखाना अच्छा लगता है, जिससे इनकी ईगो तृप्त हो. सबसे हास्यास्पद वे पुरुष भी लगते हैं जो पीरियड्स की पोस्ट पर जा कर छाती कूटते हैं. अरे भाई तुमको क्या पता है उस दर्द का, जो रोने पहुंचते हो? तुम्हारी एक ही जगह चोट लग जाय तो आंखें बाहर आ जाती हैं, ये दर्द उससे 50 गुना ज्यादा होता है बस.
इन औरतों को आँसुओं का व्यापार करना है, क्योंकि इनको सिर्फ़ यही आता है, पढ़ाई लिखाई से मतलब रखा होता, तो सबके सामने यूँ बेचारी बन कर अपने ईगो की मसाज न करवातीं. इनको पता नहीं है कि असल woman empowerment होता क्या है.
इनको ऋतु करिधाल और इसरो की महिला वैज्ञानिकों पर कोई गर्व नहीं होता. नहीं होता क्योंकि वे इनकी तरह आंसू बहा कर वहां नहीं पहुंची हैं, पहुंची होंगी तो अपनी क़ाबिलियत, लगन और परिश्रम से, वह भी परिवार को साथ लेकर. ये उनके एजेंडे में शामिल नहीं है. किसी भी महिला की उपलब्धि पर इनके मुंह में दही जम जाता है, मूँग निगल कर बैठ जाती हैं, किसी भी क़ाबिल महिला से इनको कोई सरोकार नहीं होता. इनकी वॉल पर देश की किसी उपलब्धि की मङ्गलकामना, शुभकामनाएं, बधाई नहीं होती. कोई गर्वानुभूति नहीं होती.
मुझे वितृष्णा होती है इतने ढोंगी लोगों को देख कर. इतना दोगलापन. इतना ढोंग.
ये अपने बच्चों के लिये क्या रोल मॉडल होंगी, भगवान जानें.
यह पोस्ट मैंने सर्वसाधारण के लिये लिखी है, किसी व्यक्ति विशेष से इसका प्रयोजन नहीं है, किंतु किसी को उड़ता तीर लेने की प्रबल इच्छा हो, तो बखुशी बुरा मान ले.
धन्यवाद . ????????????????
© Sulekha Pande
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