कलीमुल हफ़ीज़

अरबी महीना ज़िल-हज्ज का चाँद नज़र आते ही मुस्लिम समाज में हज और क़ुर्बानी की चर्चा शुरू हो जाती है, जो लोग हज की सआदत (सौभाग्य) पा चुके हैं उनकी नज़रों में सारे दृश्य घूमने लगते हैं। क़ुर्बानी के जानवरों के बाज़ार सजने लगते हैं, गली-कूचों से बकरों की मैं-मैं की आवाज़ें कानों में रस घोलने लगती हैं। हालाँकि इस साल कोरोना ने सब कुछ सूना-सूना कर दिया है। सारे त्यौहार ऐसे निकलते जा रहे हैं जैसे कि आए ही नहीं थे। ख़ैर ये तो क़ुदरत का निज़ाम है। बहादुर इन्सान वही हैं जो हर तरह के हालात में जीने का हुनर जानते हैं। ईदुल-अज़हा या हज दोनों का सम्बन्ध हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) के जीवन से है। वही हज़रत इब्राहीम जिनपर हम नमाज़ में दुरूद भेजते हैं, जिन्हें अल्लाह ने ‘इमामुन्नास’ (तमाम इन्सानों का पेशवा) और ‘ख़लील’ (दोस्त) का टाइटल दिया है, जिन्हें मुस्लिम कहा गया है। वही हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) जिनकी ज़िन्दगी को नमूना और उस्वा (आदर्श) बनाया गया है।

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हज़रत इब्राहीम की याद में मनाए जाने वाले त्योहार ‘ईदुल-अज़हा’ और उनकी यादों को ताज़ा करने वाली इबादत ‘हज’ हर साल मनाई जाती है। मगर हमारे अन्दर कोई बदलाव नहीं आता। इसका कारण यह है कि हम इन दोनों इबादतों को दूसरी इबादतों की तरह बे सोचे-समझे अंजाम देते हैं। हमें न क़ुर्बानी का मक़सद और उद्देश्य मालूम है और न हज का। मालूम भी हो तो मक़सद सामने नहीं रहता। मक़सद को हासिल करने की शुऊरी कोशिश नहीं होती। हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) का जीवन एक खुली किताब की तरह क़ुरआन में मौजूद है। अल्लाह ने जब इस जीवन को हमारे लिये आदर्श या ‘उस्वा’ (नमूना) कहा है तो हमें जानना चाहिये कि उनके जीवन से हमें क्या-क्या सीख मिलती हैं। मैंने जो कुछ समझा है उसे में अपने शब्दों में आपके सामने रख रहा हूँ। इस दुआ और पक्के इरादे के साथ कि अल्लाह मुझे भी इब्राहीम (अलैहि०) की सी नज़र और सूझ-बूझ प्रदान करे।

हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) के जीवन से पहली सीख हमें यह मिलती है कि हर चमकती और उभरती हुई चीज़ ख़ुदा नहीं होती, चमकता जो नज़र आता है वह सब सोना नहीं होता। सितारे, चाँद और सूरज को निकलते, उभरते, चमकते और डूबते हम भी देखते हैं। दुनिया का हर इन्सान देखता है। लेकिन यह हज़रत इब्राहीम की नज़र थी जो पुकार उठी कि मैं डूबनेवालों से प्रेम नहीं करता। (अनआम : 76)

हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) के जीवन से दूसरी सीख यह मिलती है कि जब इन्सान को हक़ (सत्य) मिल जाए तो उसे उस पर जमे रहना चाहिये। चाहे उस हक़ की ख़ातिर उसे आग में जलाया जाए, घर से निकाला जाए या कोई भी परेशानी झेलना पड़े। उसे यह यक़ीन रखना चाहिये कि सच्चाई के रास्ते पर चलने वालों की हिफ़ाज़त ख़ुदा की ग़ैबी ताक़त करती है। अगर इस रास्ते में उसकी जान भी चली जाए तो कोई हरज नहीं, क्योंकि उसकी शहादत रंग लाती है। ये ईमान रखना चाहिये कि हवा, आग, पानी और कायनात की हर चीज़ किसी हाकिम के अधीन है जो नमरूद की आग को ठण्डा कर देती है।

तीसरी सीख ये मिलती है कि अपनी बात दलीलों के साथ रखनी चाहिये। हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) की अपने पिता या क़ौम के साथ जो बातचीत है, उसमें कहीं भी झुँझलाहट और घबराहट नहीं है। बल्कि क़ौम के सामने इस तरह अपनी बात रखी गई है कि क़ौम ला-जवाब हो गई है। अपनी बात किसी के सामने भी रखी जाए तो दलील के साथ और सलीक़े से रखी जाए। वरना बहुत क़ीमती बात भी बेअसर हो जाती है।

इब्राहीम ((अलैहि०) के क़िस्से में हज़रत हाजिरा (अलैहि०) का किरदार भी बहुत महत्वपूर्ण है। हज़रत हाजिरा (अलैहि०) के आज्ञापालन पर फ़िदा होने को दिल चाहता है। अल्लाह के आदेश पर जब हज़रत इब्राहीम (अलैहि०), हज़रत हाजिरा (अलैहि०) और मासूम इस्माईल (अलैहि०) को एक ऐसी जगह छोड़ कर जाने लगे, जहाँ दूर-दूर तक किसी पेड़ की छाया भी न थी, तो हज़रत हाजरा (अलैहि०) ने उफ़ तक नहीं किया। हज़रत हाजिरा (अलैहि०) अगर ज़रा सा भी डगमगा जातीं तो हज़रत इब्राहीम (अलैहि) के लिये मुश्किल खड़ी हो जाती। हमारी महिलाओं को सीख लेनी चाहिये कि अच्छे और भलाई के कामों में वो अपने मर्दों का साथ दें और उनकी हिम्मत बँधाएँ।

हज़रत हाजिरा (अलैहि०) के किरदार में सफ़ा और मरवा की ‘सई’ (चक्कर लगाने) से भी सीख लेनी चाहिये। इससे हमें कोशिश और जिद्दो-जुहद करने और उपाय करने का सबक़ मिलता है। नन्हें इस्माईल (अलैहि०) की प्यास पर वो अल्लाह के भरोसे हाथ पर हाथ धरे भी बैठी रहतीं तब भी इस्माईल की एड़ियों से चश्मे फूट पड़ते। लेकिन हज़रत हाजिरा (अलैहि०) का पानी की तलाश में पहाड़ियों पर दौड़ना और पानी बहने पर उसे रेत की मुँडेरों से रोकना हमें उपाय करने की सीख देता है। बेटे की क़ुर्बानी का सपना देखने पर हज़रत इस्माईल (अलैहि) का जवाब हमारी नई नस्ल को राह दिखाता है। एक माँ ने अपने बेटे की किस तरह तरबियत की थी इसका अन्दाज़ा उस जवाब से लगाइये जो एक बेटे ने दिया है। “ऐ अब्बा जान! आप वह करिये जिसका आदेश अल्लाह ने आपको दिया है, आप मुझे सब्र करने वालों में से पाएँगे।” क्या बेहतरीन जवाब है, जिसने हौसला, हिम्मत और जवाँ-मर्दी की चोटियों को छू लिया है। उस दिन के बाद से आज तक इतना बड़ा हौसला किसी ने नहीं दिखाया। कोई रुस्तम व दारा हिम्मत और बहादुरी की उस ऊँचाई को नहीं पहुँचा और न कभी पहुँच पाएगा। इसमें एक तरफ़ माँ की तरबियत और दूसरी तरफ़ हज़रत इस्माईल (अलैहि०) की सआदतमन्दी (गुणशीलता) है। इसी लिये अल्लामा इक़बाल ने पूछा था कि

ये फ़ैज़ाने-नज़र था या कि मकतब की करामत थी।

सिखाए किसने इस्माईल को आदाबे-फ़रज़न्दी।।

हज़रत इब्राहीम ने बेटे की क़ुर्बानी का नज़राना (भेंट) देकर यह सिद्ध कर दिया कि अल्लाह की मुहब्बत में सब कुछ क़ुर्बान किया जा सकता है। इन्सान अपनी जान देने पर तो तैयार हो जाता है लेकिन अपने बेटे की जान देने पर कभी तैयार नहीं होता। बल्कि इन्सानी तारीख़ में ऐसी हज़ारों घटनाएँ हैं कि एक बाप अपने बच्चे की जान बचाते हुए अपनी जान की बाज़ी हार जाता है, लेकिन ये मानव-इतिहास की अनोखी घटना है जहाँ एक बाप अपने बेटे की क़ुर्बानी सिर्फ़ इसलिये दे देता है कि उसके ख़ुदा ने उससे ये क़ुर्बानी माँगी है। इससे ये सीख मिलती है कि औलाद की तरबियत और ट्रेनिंग पर तवज्जोह दी जाए और उसकी मुहब्बत पर ख़ुदा की मुहब्बत क़ुर्बान न की जाए।

क़ुर्बानी की इबादत हमें त्याग की भी सीख देती है। हमारे अन्दर हर तरह की क़ुर्बानी देने की भावना पैदा करती है। सामाजिक जीवन में ऐसे अवसर आते रहते हैं जब हम देखते हैं कि हमसे भी ज़्यादा कोई और ज़रूरतमन्द है। ऐसे अवसर पर ख़ुद की ज़रूरत को रोक कर दूसरों की ज़रूरत पूरी करना ही इब्राहीम (अलैहि०) का उस्वा और आदर्श है। सफ़र करते समय कमज़ोर, बीमार, बुज़ुर्ग और महिलाओं के लिये सीट ख़ाली करना, लाइन में बुज़ुर्गों को पहले जगह देना, पड़ौसी की ज़रूरत का ख़याल रखना; जहालत, ग़ुरबत दूर करने के लिये अपने वक़्त की, सलाहियतों की और माल की क़ुर्बानी देना, जिस देश में हम रहते हैं उस देश की ख़ातिर क़ुर्बानी देने की तालीम हमें क़ुर्बानी के फ़रीज़े की अदायगी से हासिल होती है।

हमें यह सीख भी मिलती है कि क़ुर्बानी से कोई चीज़ कम नहीं होती, बल्कि उसमें बढ़ोतरी होती है। हम देखते हैं कि हर साल करोड़ों जानवर क़ुर्बान कर दिये जाते हैं मगर अगले साल उससे अधिक जानवर बाज़ार में नज़र आते हैं। इससे हमें यह सीख मिलती है कि क़ुर्बानी कभी बेकार नहीं जाती, जिस पौदे को लहू से सींचा जाता है वह ज़रूर फल देता है। हम यदि अपने बच्चों के अच्छे भविष्य के लिये क़ुर्बानी देते हैं तो हमारे बच्चे कामयाब ज़रूर होते हैं, इसी तरह अगर क़ौम की ख़ातिर क़ुर्बानियाँ दी जाएँ तो कोई कारण नहीं कि क़ौम को सफलता और कामयाबी हासिल न हो।

हज़रत इब्राहीम (अलैहि) और उनके घरवालों का अल्लाह पर ईमान, एक ऐसी रौशनी है जो हर अँधेरे का मुक़ाबला करने के लिये काफ़ी है। यही वो ईमान है जिसके सामने नमरूद का सर भी झुकता है। आज भी अगर हम चाहते हैं कि वक़्त के फ़िरऔन और नमरूद का घमण्ड ख़ाक में मिल जाए तो हज़रत इब्राहीम जैसा ईमान पैदा करना होगा।

हज़रत इब्राहीम की ज़िन्दगी आलमी (Global) हैसियत रखती है। इसलिये कि हज़रत इब्राहीम को मौजूदा दुनिया के तीन बड़े धर्म ईसाई, इस्लाम और यहूदियत अपना पेशवा तस्लीम करते हैं। इससे ग्लोबल एकता की बुनियाद मिल जाती है। तीनों धर्मों के पेशवाओं को आपसी मुहब्बत का सबक़ अपने मानने वालों को देना चाहिये।

मुझे उम्मीद है कि इन नाज़ुक हालात में हम ईदुल-अज़हा के अवसर पर हज़रत इब्राहीम के पवित्र जीवन से मिलनेवाली उन सीखों को याद रखेंगे और पूरे शुऊर के साथ, उद्देश्य को सामने रखकर क़ुर्बानी की रस्म अदा करेंगे। हम यह पक्का इरादा करेंगे कि ये त्यौहार हमारी निजी ज़िन्दगी और क़ौमी ज़िन्दगी में पॉज़िटिव बदलाव लाएगा।

बराहीमी नज़र पैदा मगर मुश्किल से होती है।

हवस छुप-छुप के सीनों में बना लेती है तस्वीरें।।

कलीमुल हफ़ीज़, नई दिल्ली

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