राष्ट्रवाद, देशभक्ति, धर्म,लोकतंत्र या संविधान?
पिछले सप्ताह जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने तुषार मेहता, सालिसिटर जनरल व कपिल सिब्बल को सभ्य फटकार लगाई। कपिल सिब्बल तो बदल ही गए और बोले माइलॉर्ड अभी मैं सीख रहा हूँ, जिस पर मुख्य न्यायाधीश ने कहा, हमें भी सिखाना आता है। धनंजय यशवंत चंद्रचूड ने कहा कि डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने न्यायिक अधिकार संविधान में स्पष्ट किये हैं। यह प्रमाणित है कि अब राष्ट्रवाद बनाम धार्मिक उत्पाद के अनेक मुद्दे हैं? देशभक्ति बनाम धर्म-कुलीनतंत्र? ‘जातिगत भेदभाव को खत्म किया जाए’, जस्टिस चंद्रचूड ने कहा कि यह लाजिमी है कि समाज के विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के लोग अतीत की बेड़ियों से मुक्त होकर हाशिए पर रह रहे समुदाय के सदस्यों को मान्यता व सम्मान प्रदान करें। समाज में परिवर्तन लाने के लिए हमें डॉ: बीआर अंबेडकर के विचारों का आज के संदर्भ में उपयोग करना चाहिए। समाज की मुख्य धारा से उपेक्षित होकर किनारे होते-होते हाशिए पर पड़े वर्गों- महिलाओं, समलैंगिकों और विकलांग लोगों के बारे में ‘हाशिए पर रहने की स्थिति न केवल निचली जाति के सदस्यों के लिए होती है, बल्कि उन लोगों के लिए भी होती है जो अपने माध्यम से मुख्यधारा के ‘आदर्श’ से भटक जाते हैं। इसे प्रत्यक्ष और भौतिक होने की आवश्यकता नहीं होती है। संविधान रचनाकारों ने 74 साल पहले हमे न्याय, स्वतंत्रता और सभी के लिए समानता पर आधारित संविधान दिया। फिर क्या कारण है कि हमारा समाज धर्म, जाति, लिंग व अर्थतंत्र का गुलाम है? महिलाओं के विरुद्ध अपराधों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है। कांग्रेस; स्वतंत्रता आंदोलन की पार्टी से लेकर, वंशवादी ‘गांधी परिवार’ तक ही सीमित रह गई है। देश के पिछवाड़े में इस्लामी कट्टरवाद का उदय हो चुका है। ‘भाषावाद बनाम देशभक्ति’; समकालीन विकास में पुरानी चर्चा है। देशभक्ति और भाषावाद के पहलुओं को चित्रित करना, देश में एकरूपता और असहमति को अपराधीकरण करना लोकतंत्र को कमज़ोर करता है। इसकी उत्पत्ति आंशिक रूप से 19वीं शताब्दी के ‘यूरोपीय राष्ट्रवाद’ में हुई है, जिसकी जड़ें मध्ययुगीन मध्य-पूर्व में हैं, जहां ईसाई और यहूदियों को मुस्लिम बहुल राज्य में द्वितीय श्रेणी का नागरिक माना जाता था। देशभक्ति का लक्षण भाषावाद का अच्छा मारक है। भारत को ‘विविधता’ विरासत में मिली है, जिससे कोई भारतीय अपने धर्म या भाषा से दूसरे से श्रेष्ठ नहीं है। देशभक्ति कई स्तरों पर काम करती है। दान की तरह; यह घर से ही शुरू होती है। देशभक्ति एक के पड़ोस, शहर, राज्य और देश के लिए चिंता का विषय है और प्रत्येक एक दूसरे के पूरक है। राज्य का झंडा, गणतंत्र के लिए खतरा पैदा नहीं करता है। ‘कैटलाँन’ ने स्वतंत्रता की घोषणा की है क्योंकि स्पेन ने उन्हें कई अन्य चिंताओं के बीच अपनी भाषा बोलने का अधिकार नहीं दिया। डॉ.बीआर अम्बेडकर ने कहा, “भक्ति धर्म में मुक्ति का मार्ग है, जबकि राजनीति में भक्ति तानाशाही का मार्ग है”। यह किसी एक राजनीतिक विचारधारा के लिए नहीं है। किसी की संस्कृति में निहित होने व दूसरों से सीखने की क्षमता होनी चाहिए। एक सच्चे देशभक्त में अपने राज्य और समाज की विफलताओं को महसूस करने और उन्हें सुधारने की कोशिश करने की क्षमता होनी चाहिए। संवैधानिक देशभक्ति आज कट्टरपंथ के रूप में है, जहां एक धर्म, एक भाषा और एक आम दुश्मन; ‘पाकिस्तान’, एक भारतीय पहचान; राष्ट्रवाद को परिभाषित करने का आधार बन गया है। हमारे देश के संस्थापकों ने यूरोपीय राष्ट्रवाद के मॉडल को खारिज कर दिया, जबकि पाकिस्तान एक आदर्श यूरोपीय राज्य का उदाहरण है। इसे ‘आलिगारकी’ (oligarchy) कहा जाता है। हमारे संविधान निर्माताओं ने विविधता, आर्थिक आत्म निर्भरता व कानून के समक्ष समानता के साझा आदर्शों के आधार पर हमारे राष्ट्र का निर्माण किया। भारत में कट्टरपंथ का प्रतिनिधित्व करने वाली कोई भी पार्टी, देशभक्ति का प्रतिनिधित्व करने वाली आधुनिक पार्टी नहीं हो सकती। कट्टरवाद ऐसा शब्द है जो कई दशकों से राजनीति में धर्म की सामान्य भागीदारी का मुख्य आधार रहा है। ‘धार्मिक कट्टरवाद लगभग हमेशा ‘पारंपरिक, रूढ़िवादी’, दुनिया से जुड़ा है। यह उन लोगों द्वारा व्यक्त किया जाता है जो यह मानते हैं कि दुनिया एक बेहतर जगह होगी यदि सभी लोग ‘उनके भगवान’ उनके विश्वास के पवित्र ग्रंथों का अनुसरण करें। इसके अलावा कई लोगों के लिए धार्मिक कट्टरवाद का अर्थ आधुनिकता की अस्वीकृति और अतीत में लौटने की इच्छा है। शायद पौराणिक समय में जब लोग ‘भगवान के अधिकार क्षेत्र’ में रहते थे। इसे यूरोप में ‘थ्योरी आफ डिवाइन रााइट्स’ (theory of divine rights) कहा जाता है। समाज को बदलने के लिए राजनीतिक आकांक्षाओं के साथ दुनिया भर में, कभी-कभी विविध, धार्मिक आंदोलनों का वर्णन और व्याख्या करने के लिए किया गया है। ‘कट्टरपंथी’ पहली बार 1920 के दशक में अमेरिकी ‘प्रोटेस्टेंटों’ द्वारा लागू किया गया था।कट्टरपंथी सिद्धांतों का चरित्र या प्रभाव राज्य-समाज की बातचीत के आसपास, कई समकालीन देशों और धर्मों में घूमते हुए नैतिक और सामाजिक मुद्दों के गठजोड़ के भीतर स्थित है। ‘आधुनिकीकरण’ ने कई लोगों के जीवन पर गहरा और कभी-कभी विचलित करने वाले तरीकों से प्रभावित किया। कट्टरपंथियों के लिए यह प्रारंभिक रक्षात्मकता में प्रकट हुआ जो अंततः कई लोगों के लिए राजनीतिक आक्रमण में विकसित हुआ, जिसने राज्य-समाज संबंधों की प्रचलित सामाजिक और राजनीतिक वास्तविकताओं को बदलने की मांग की। इन परिस्थितियों में कट्टरपंथी नेताओं के लिए उन लोगों का समर्थन हासिल करना अक्सर अपेक्षाकृत आसान होता था जिन्हें लगता था कि किसी तरह से समाज का विकास ईश्वर की इच्छा या उनके समुदाय के हितों के अनुसार नहीं हो रहा है। समीक्षार्थ यह कहना उचित होगा कि सामान्य रूप से धार्मिक कट्टरवाद के रूप में संदर्भित की जाने वाली विभिन्न अभिव्यक्तियों ने अलग-अलग समूहों को अलग-अलग कारणों से अलग-अलग समय पर अपील की है। विभिन्न धर्मों के युवाओं में कट्टरवाद को इसके निहितार्थों को समझे बिना असंवैधानिक पद्धति का पालन करते हुए देखना वास्तव में चिंताजनक है। भारत देश गरिमामय है। हमें सर्व धर्म समभाव को लेकर देश की सम्प्रभुता को सर्वोपरी रखना होगा। वासुदेव-कुटुम्बकम में कट्टरवाद का कोई स्थान हो ही नहीं सकता।