उबैद उल्लाह नासिर का लेख: संवैधानिक संस्थाएं लोकतंत्र की हत्या में शामिल हैं, केवल जनता की जागरूकता ही उसे बचा सकती है,देश के संवैधानिक लोकतंत्र पर चौतरफा हमला हो रहा है
उबैद उल्लाह नासिर
शायद यह मेरी ही नहीं सबका नहीं तो अधिकतर पत्रकारों (लेखकों कवियों शायरों की भी) की समस्या है। किसी एक टॉपिक पर लेख लिखने की तैयारी करो, इतनी देर में घटनाक्रम बदल जाता और उस से भी ज्यादा बर्निंग टॉपिक सामने आ जाते हैं। अंतर्राष्ट्रीय ख्यात प्राप्त शायर डॉ तारिक कमर ने एक मुशायरे में अपना कलाम पढ़ने से पहले बड़े पते की बात कही थी कि आज देश के हालात ऐसे हैं कि ग़ज़ल लिखना शुरू करो तो वह मर्सिया (शोक गीत) हो जाता है।
वैसे तो देश में मोदी युग शुरू होते ही रोज़ कुछ न कुछ अप्रत्याशित होता ही रहता है। इन 7-8 वर्षों में इतने आंसू निकल चुके हैं कि अब आँखों ने रोना ही छोड़ दिया है। अब वीभत्स से वीभत्स हत्या, बड़े से बड़ा सरकारी अत्याचार, बड़े से बड़ा अनैतिक कृत्य, और अदालतों के शर्मनाक फैसलों पर न हैरत होती न गुस्सा आता है और न ही देश और उसके लोकतंत्र के भविष्य की चिंता सताती है, क्योंकि रामायण की यह पंक्ति ही सच जान पड़ती है कि”होइये वही जो राम रचि राखा” आप यहाँ भगवान राम की जगह मोदी अमित शाह का नाम पढ़ सकते हैं। क्योंकि मर्यादा पुर्शोत्तम भगवान राम तो वह सब बिलकुल न होने देते जो आज उनके नाम पर इस देश में हो रहा है।
पैगम्बर मोहम्मद (स) पर बीजेपी की प्रवक्ता नूपुर शर्मा की बेहूदा टिप्पणी से उपजे विवाद से लेकर महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार गिरने तक के घटनाक्रम देखिये तो साफ़ पता चल जाता है कि सब कुछ एक सोचे समझे मंसूबे के तहत हो रहा है। नूपुर शर्मा के ब्यान को लेकर उदयपुर के दो मुस्लिम नवजवानों ने जो कुछ किया, उसने देश के सभी मुसलमानों का सर शर्म से झुका दिया है। इन क्रूर धर्मान्धों ने यह हरकत उस व्यक्ति के नाम पर की है जिसे अल्लाह ने दुनिया में रहमतुल आलमीन ( सारी दुनिया के लिए दयावान) बना कर भेजा था। जो अपने ऊपर होने वाले हर अत्याचार को न केवल बर्दाश्त करता था, बल्कि अत्याचारी के साथ भी प्रेमभाव रखता था और जब उस के हाथ में सत्ता आई तो उसने उन सब अत्याचारियों को आम माफ़ी का एलान कर दिया था। यहाँ तक कि अपने चहीते चाचा के हत्यारों तक को माफ़ कर दिया था। राजस्थान पुलिस ने त्वरित कार्यवाही करते हुए इन दोनों क्रूर धर्मान्धों को गिरिफ्तार कर लिया है और उन पर यूएपीए समेत सख्त धाराओं में मुकदमा लिख लिया गया है। देश के पूरे मुस्लिम समाज ने इस क्रूरता और बर्बरता की निंदा करते हुए दोनों धर्मान्धों पर फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में मुक़दमा चला कर फांसी देने की मांग की है। आवश्यकता है कि उन कठमुल्लाओं को भी सज़ा मिले और मुस्लिम समाज उनका बहिष्कार करे, जो मोहमम्द (स) से मोहब्बत के नाम पर सर तन से जुदा जैसे हिंसक नारे लगवाते हैं।
नूपुर शर्मा का अनर्गल बयान भले ही त्वरित रहा हो, लेकिन उससे उपजे विवाद को बड़ी होशियारी के साथ सत्ता पक्ष ने अपने लाभ की ओर मोड़ दिया। भले ही देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी हो। सोचिये यदि इंटरनेशनल रिएक्शन को देखते हुए सरकार ने दिखावे के लिए ही सही नूपुर शर्मा को अरेस्ट कर लिया होता तो क्या देश भर में उसके खिलाफ मुसलमानों का धरना प्रदर्शन होता। लेकिन सरकार को इस धरना प्रदर्शन में अवसर दिखाई दिया, किसी ने एक पत्थर फ़ेंक दिया (पत्थर फेंकने वाला क्यों अरेस्ट नहीं हुआ, यह बड़ा सवाल है। क्योंकि संभवतः उसके तार कहीं और से जुड़े हुए हैं) लेकिन धरना प्रदर्शन की अपील करने वालों को मुजरिम समझ कर उनके घरों पर बुलडोज़र चला दिया गया। बुलडोज़र न्याय एक नयी व्यवस्था डेवलप की गयी है। किसी भी मुलजिम के घर पर बुलडोज़र ले जाकर खड़ा कर दिया जाता है कि या तो वह पुलिस के सामने हाज़िर हो जाए, नहीं तो उसका घर बुलडोज़ कर दिया जाएगा और वह बेचारा भागा भागा पुलिस के सामने आत्मसमर्पण ही नहीं कर देता, बल्कि इकबाल जुर्म भी कर लेता है। भले वह जुर्म उसने किया हो या न किया हो। क्या 2014 से पहले इस देश में सरकार का विरोध नहीं होता था, धरना प्रदर्शन नहीं होते थे, इन धरना प्रदर्शनों में तोड़ फोड़ नहीं होती थी,सरकारी और निजी सम्पतियों को नुकसान नहीं होता था, क्या खुद बीजेपी ने कभी कोई धरना प्रदर्शन नहीं किया, लेकिन क्या इससे पहले कभी विरोधियों को दुश्मन समझा गया था। उनके मकानों पर बुलडोज़र चलवाया गया था। उनको संगीन धाराओं में जेल में ठूंसा गया था। 2014 अर्थात मोदी युग शुरू होने के बाद भी जाट आन्दोलन, गुर्जर आन्दोलन, किसान आन्दोलन आदि हुए, यह आन्दोलन बहुत उग्र भी थे, सड़कें जाम की गयीं, बसों को आग लगाई गयी, ट्रेनों का आवागमन रोका गया, रेल की पटरियां उखड़ी गईं। बुलंदशहर में हुए ऐसे ही एक प्रदर्शन के दौरान एक इंस्पेक्टर सुबोध सिंह की हत्या भी कर दी गई। हत्यारा पकड़ा भी गया, परंतु उसके घर पर बुलडोजर चलाने की बजाए उसका और महिमामंडन किया गया। अवाम वह दृश्य अभी भूले नहीं है, जब गोरखपुर के तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट ने योगी का स्क्रू ज़रा सा टाइट किया था तो वह लोक सभा में फूट फूट कर रो रहे थे और स्पीकर से सुरक्षा की गुहार कर रहे थे, उन्ही योगी ने प्रदेश में ठोंक दो नीति शुरू कर के पुलिस को अभियुक्तों को सीधे गोली मार देने का इशारा दे दिया। इसका शिकार सब से ज्यादा समाज का कौन वर्ग हुआ है, यह आरटीआई द्वारा लिस्ट निकलवा के देखा जा सकता है। वही योगी आज खुद को बुलडोज़र बाबा कहलाने में गर्व महसूस करते हैं। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ उत्तर प्रदेश में हुए प्रोटेस्ट के दौरान एक ही दिन में 22 नवजवानों की हत्या हो जाती है, बिना किसी जांच पड़ताल और कानूनी प्रक्रिया के उन्हें दंगाई घोषित कर दिया जाता है और पीड़ित परिवारों को कोई मुआवजा देना तो दरकिनार उन से हमदर्दी का एक शब्द बोलने की बजाए, सदन में कितनी निर्दयता से कहा जाता है कि जो मरने आया है, उसे मरने से कौन रोक सकता है और सत्ता पक्ष के विधायक ही नहीं, खुद स्पीकर साहब क़हक़हा लगाते हैं। अमानवीयता असंवेदनशीलता का इतना क्रूर मंज़र वह भी लोकतंत्र के मंदिर में इन आँखों को देखना पडा था। प्रयागराज में जुमा की नमाज़ के बाद हुए प्रदर्शन के दौरान किसी ने एक पत्थर फ़ेंक दिया, बस इतना काफी था, दूसरी ओर से भी एक आध पत्थर आया और उसके बाद शुरू हुआ बुलडोज़र न्याय और उसका निशाना बने शहर के जाने माने सामाजिक कार्यकर्ता मोहम्मद जावेद उर्फ़ जावेद पम्प, और सब क्या हुआ उसका वर्णन करने की बजाए इतना बताना काफी है कि 12 घंटे की नोटिस पर उनका वह दो मज़िला मकान मलबा बना दिया गया जो उनके नाम था ही नहीं। यह मकान उनकी पत्नी के नाम था और इसकी ज़मीन उनके पिता यानी जावेद के ससुर ने उन्हें गिफ्ट की थी, मकान 20 साल पुराना था और इसके सभी टैक्स, बिजली बिल आदि का नियमित भुगतान हो रहा था 20 साल बाद और लाखों रुपया टैक्स बिजली बिल आदि लेने के बाद प्रयागराज विकास प्राधिकरण को पता चला कि इस बस्ती के हज़ारों मकानों में यही एक मकान गैर कानूनी तौर से बना है और उसे ढहा दिया गया। बाबा के बुलडोज़र न्याय और उसका सियासी फायदा देखते हुए मध्य प्रदेश में भी यह सिलसिला शुरू किया गया। खरगोन में भी ऐसे ही एक काण्ड के बाद मुसलमानों के मकानों और दुकानों को बुलडोज़ किया गया। इनमें वह मकान भी शामिल था, जो प्रधान मंत्री आवास योजना का तहत मिली आर्थिक मदद से बनाया गया था। यही नहीं, प्राप्त समाचार के अनुसार वहां हिन्दू और मुस्लिम बस्तियों के बीच दीवार भी उठवाई जा रही है, ठीक फिलस्तीन की गाजा पट्टी की तरह। लेकिन इसके विपरीत अग्निपथ योजना के विरोध में हुए प्रदर्शन और तोड़ फोड़ पर किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई, उल्टा वाराणसी के पुलिस अधिकारी यह कहते हुए टीवी स्क्रीन पर अवतरित हुए कि यह हमारे बच्चे हैं, हम इन्हें समझा बुझा के रास्ते पर लायेंगे। यह एक अच्छी सोच है, लेकिन क्या मुसलमान के बच्चे उनके नहीं तो इस देश के बच्चे नहीं हैं। उनके साथ यह सहृदयता क्यों नहीं दिखाई जा सकती। उन्हें दंगाई पत्थरबाज़ आदि कह के बरबरता का निशाना क्यों बनाया जाता है। लेकिन उस अफसर से दोहरे मापदंड की क्या शिकायत हो सकती है जब यह दोहरा मापदंड सरकार की पॉलिसी ही है और अब जिससे न्याय व्यवस्था तक अछूती नहीं रह गयी है। पत्रकार अर्नब गोस्वामी को तुरंत सीधे सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिल जाती है और पत्रकार सिद्दीक कप्पन कई वर्षों से जेल में सड़ रहा है, उसे आज तक ज़मानत नहीं मिली है। यही नहीं, भीमा कोरेगांव काण्ड के सभी अभियुक्त हिन्दू ही हैं, वह भी जमानत नही पा सके हैं। क्योंकि उन्होंने सत्ता से टकराने की हिमाक़त की थी।
ऑल्ट न्यूज़ के सह संस्थापक मोहम्मद ज़ुबैर को 25-30 साल पहले बनी एक फिल्म के एक सीन को रीट्वीट करने के जुर्म में गिरिफ्तार कर लिया जाता है। 25-30 साल पहले जिस सीन को लेकर किसी की धार्मिक भावना आहत नहीं हुई थी, वह अचानक मोहम्मद ज़ुबैर के ट्वीट से आहत हो गई और एक फर्जी आईडी से भेजी गयी शिकायत की बुनियाद पर देहली पुलिस ने उन्हें गिरिफ्तार कर लिया। यह वही देहली पुलिस है जो अपने ही उन कर्मियों को आज तक नहीं ढूंढ पायी है, जो एक मुस्लिम नवजवान से पीट पीट कर वन्दे मातरम बुलवा रहे थे और उसे इतना पीटा था कि अस्पताल में उसकी मृत्यु हो गयी थी। जो गोली मारों सालों के नारों पर एक्शन में नहीं आई थी, जो खुलेआम नरसंहार की बात करने वाले यति असीमानन्द को अरेस्ट नहीं कर पायी थी। कर्नाटक में मुस्लिम लड़कियों को हिजाब पहन कर कॉलेज आने पर तो हाई कोर्ट ने ही पाबंदी लगा दी, लेकिन हिन्दू छात्राओं की बिंदी, विवाहित हों तो सिन्दूर ,मंगल सूत्र आदि और सिख छात्रों की पगड़ी, कृपाण, कड़ा आदि पर कोई पाबंदी नहीं, क्योंकि यह उनकी धार्मिक आज़ादी का मामला है। हाई कोर्ट के इस विद्वेष पूर्ण फैसले के कारण दर्जनों होनहार मुस्लिम बच्चियों की पढ़ाई प्रभावित ही चुकी है। लेकिन सरकार और अदालत की संवेदना सोई हुई है। दुःख आश्चर्य की बात यह है कि कर्नाटक में मुसलमानों के साथ यह साम्प्रदायिक विद्वेष पूर्ण रवैया उस मुख्यमंत्री का है, जिसका पिता अपनी सेक्युलर सोच के कारण अपनी सत्ता को लात मार चूका था,जिसकी परवरिश घर परिवार के सेक्युलर माहौल में हुई, इसके बरखिलाफ आरएसएस की गोद में पले बढ़े पूर्व मुख्यमंत्री येदुरप्पा इसका खुल कर विरोध कर रहे हैं और खुले आम कह रहे हैं कि मुसलमानों के साथ भेद भाव पूर्ण रवैया न रखा जाए।
भारत में लोकतंत्र की मजबूती के लिए हमारे विवेकशील दूरदृष्टि वाले नेताओं ने कई संवैधानिक संस्थाएं बनाई थीं, ताकि सदन में संख्या के बल पर कोई सरकर तानाशाह न हो जाए। यह सभी संस्थाएं आज़ाद थीं, इन पर सरकार का कोई कंट्रोल नहीं होता था। वैसे तो इनकी संख्या दर्जनों में है, लेकिन इन सब से ऊपर होती है अदालत, जो पूरी तरह आज़ाद होती है। यहाँ तक कि सदन से स्वीकृत हुए कानून की समीक्षा का भी उसे अधिकार है कि यह कानून संविधान सम्मत है या नहीं। यह तो नहीं कहा जा सकता कि इन संस्थाओं ने हमेशा पूरे परफेक्शन के साथ काम किया हो, कहीं न कहीं खामियां ज़रूर होती रहती थीं, लेकिन उन पर से जनता का विश्वास नहीं डिगा था। मोदी युग के बाद इन सभी संस्थाओं पर छांट छांट के एक विशेष विचारधारा के लोगों को बैठा दिया गया और वह सब हिज़ मास्टर वॉइस(एचएमवी) बन गए थे। चुनाव आयोग में मोदी के एक भाषण की शिकायत की गई। तीनों चुनाव आयुक्तों ने उसकी समीक्षा की, दो ने उसे आपत्तिजनक नहीं माना लेकिन एक चुनाव आयुक्त ल्हासा उससे सहमत नहीं हुए। उन्होंने विरोध में अपना फैसला लिखा। लेकिन चूँकि फैसला दो बनाम एक हो गया था, इसलिए मोदी के बयान पर कोई एक्शन नहीं हुआ। यही नहीं ल्हासा के फैसले को ऐसा दबाया गया कि आज तक कोई नहीं जान सका कि उन्होंने क्या लिखा था। सिर्फ मोटी बात सामने आई कि उन्होंने मोदी के भाषण को आपत्तिजनक पाया था। हाँ यह ज़रूर हुआ कि चूँकि वह सीनियरटी की बुनियाद पर अगले मुख्य चुनाव आयुक्त हो सकते थे, इसलिए चुनाव आयोग से उन्हें हटा कर दूसरी जगह भेज दिया गया। एन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट(ईडी) क्या कर रहा है, यह सभी देख रहे हैं। लेकिन सब से दुखद स्थिति न्यायपालिका की हो गयी है। किसी भी न्यायव्यवस्था के लिए इससे ज्यादा शर्म और दुःख की बात कुछ नहीं हो सकती कि सरकार या सत्ताधारी पक्ष के खिलाफ कोई भी विवाद सुप्रीम कोर्ट जाए और जनता पहले ही न समझ जाए कि इसका फैसला क्या आएगा। महाराष्ट्र के हालिया सत्ता संघर्ष में एक बार फिर यह कटु सत्य सामने आ गया। सुप्रीम कोर्ट ने तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे पक्ष के हाथ पैर बाँधकर और विरोधी गुट एकनाथ शिंदे के दोनों हाथ खुले छोड़कर पैरने को कह दिया, उसका जो अंजाम होना था वह आज हमारे सामने है। सुप्रीम कोर्ट जनता के संवैधानिक, लोकतांत्रिक और मानवाधिकारों का संरक्षक है। वह सरकार का वाचडॉग भी है, जो यह देखता है कि सरकार संविधान से इतर कोई काम तो नही कर रही है। लेकिन चाहे जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने का मामला हो, चाहे नागरिकता कानून में संशोधन का मामला हो, चाहे अयोध्या विवाद का मामला हो, राफेल हवाईजहाजों की खरीदारी का मामला हो या सीबीआई के डायरेक्टर को रातोंरात हटाने का मामला हो, बुलडोज़र न्याय का मामला हो या हालिया महाराष्ट्र का सत्ता संघर्ष हो। सुप्रीम कोर्ट ने या तो टाल मटोल से काम लिया या सत्ता पक्ष के हक में निर्णय दिया है। यही नहीं एक जज साहब के सामने सरकार बनाम एक विशेष कॉर्पोरेट हाउस के 7-8 मुक़दमे पेश हुए, उन सब में उसी कॉर्पोरेट हाउस के फेवर में फैसला दे कर सरकार को अरबों रुपया का चूना लगाया गया और उस धन्ना सेठ को फायदा पहुंचाया गया। रिटायरमेंट के बाद उन जज साहब को कानून बदल कर एक आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया है।
सच्चाई यह है कि हमारा लोकतंत्र मरणासन्न स्थिति को पहुँच चुका है। केवल वोट देने की रस्म भर बाक़ी रह गयी है। जिन संस्थाओं पर उसे बचाने की ज़िम्मेदारी है, वह सब न केवल अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ चुकी हैं,बल्कि लगता तो यह है कि लोकतंत्र की हत्या की साज़िश में शामिल हैं और एक विशेष मकसद के तहत काम कर रही हैं। अब अगर भारत को संवैधानिक सेक्युलर सोशलिस्ट लोकतंत्र बनाये रखना है तो जनता को ही उठ खड़ा होना पड़ेगा और यह काम जितनी जल्दी हो जाए अच्छा है। क्योंकि जितनी देर होगी कीमत भी उतनी ही ज्यादा होगी।