प्रीति नाहर
प्रिय बॉलीवुड..
महिलाओं को अबला नारी, समाज से लड़ती, पुरुषों की भीड़ में अपनी पहचान खोजने वाली फिल्में बनाना बंद करो। ये सब हमें पता है, पुरुषों को भी पता है। हर दिन यही झेल रहीं हैं हम महिलाएं। इससे अच्छा हो महिलाओं के पहचान बनाने के बाद का संघर्ष, पुरुषों के साथ अपनी ज़िंदगी जीने, अपनी पहचान बनाने वाले समय पर फ़िल्म बनाओ।
उनके जीवन का मजबूत हिस्सा दिखाओगे तो समाज उनको मजबूत ही एक्सेप्ट करना शुरू करेगा, अबला नारी के ढांचे में फसाये रखोगे तो समाज उनको पहले अबला और कमज़ोर ही समझता रहेगा। इसीलिए हालिया फ़िल्म गुंजन सक्सेना में उसे वॉर ज़ोन में लड़ते हुए दिखाते तो अच्छा रहता न कि पुरुषों से लड़ती अपनी काबिलियत के लिए परमिशन मांगती फिरती हुई दिखा रहे हो।
बदलाव करो, महिलाओं के आंशु वाले ड्रामे बंद करो। मर्द को दर्द नहीं होता और औरत बिना रोये धोए आगे नहीं बढ़ सकती ये पैटर्न बहुत पकाऊ है। प्लीज माफ करो यार। बॉयोग्राफी बनाने में सबसे पहले उनको महिला या पुरुष दिखाने का अंतर बंद करो। जिस काम के लिए वो जाने जाते हैं उस पर मेहनत करो। संघर्ष महिला पुरुष से इतर भी बहुत से लेवल पर होता है। उस पर स्क्रिप्ट लिखिए।
उदाहरण के तौर पर इंदिरा गांधी पर फ़िल्म बनाना हो तो हमे इस प्लॉट में कोई इंटरेस्ट नहीं कि वो किस स्कूल में पढ़ी। उनके पिता ने उनको क्या समझाया, उनके दोस्त कैसे उनको ताना मारते होंगें, उनको किचन में जाकर मसाले खोजने पड़ते होंगे या मंत्री बनने पर पुरुष नेता उनको हीन भावना से देखते होंगे। इससे बेहतर होगा ये दिखाना की उन्होनें प्रधानमंत्री रहते हुए कैसे निर्णय लिए, क्या नीति बनाई, देश को किस तरह चलाया, उनकी राजनीति क्या थी आदि।