क्या आपको पता है कि बैंकों के अफ़सर इस महीने क्या कर रहे हैं? वे वित्त मंत्रालय के निर्देश पर चर्चा कर रहे हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था का आकार 5 ट्रिलियन डॉलर का कैसे किया जा सकता है। जब बजट के आस-पास 5 ट्रिलियन डॉलर का सपना बेचा जाने लगा तो किसी को पता नहीं होगा कि सरकार को पता नहीं है कि कैसे होगा। इसलिए उसने बैंक के मैनजरों से कहा है कि वे शनिवार और रविवार को विचार करें और सरकार को आइडिया दें। 17 अगस्त यानि शनिवार को बैंक के ब्रांच स्तर के अधिकारी पावर प्वाइंट बनाकर ले गए होंगे। इसके बाद यह चर्चा क्षेत्रीय स्तर पर होगी और फिर राष्ट्रीय स्तर पर। तब जाकर ख़ुद आर्थिक संकट से गुज़र रहे हमारे सरकारी बैंक के मैनेजर भारत की अर्थव्यवस्था का आकार 5 ट्रिलियन डॉलर बनाने का आइडिया दे सकेंगे।

इस प्रक्रिया पर हंसने की ज़रूरत नहीं है। अफ़सोस कर सकते हैं कि बैंक की नौकरी का क्या हाल हो गया है। 2017 से ही बैंकर सैलरी के लिए संघर्ष कर रहे हैं मगर अभी तक सफ़लता नहीं मिली। बढ़ी हुई सैलरी हाथ नहीं आई है। अख़बार में ख़बरें छपवा दी जाती हैं कि 15 प्रतिशत सैलरी बढ़ने वाली है। इसी दौरान वे सांप्रदायिक और अंध राष्ट्रवाद के चंगुल में अन्य लोगों की तरह फंसे भी रहे। बैंक की ख़स्ता हालत का सारा दोष इन पर लाद दिया गया। जबकि 70 फीसदी से अधिक लोन का बक़ाया बड़े कारपोरेट के पास है। उनसे लोन वसूलने और उन्हें लोन देने के तरीकों पर बैंकरों से चर्चा करनी चाहिए था तब लगता कि वाकई सरकार कुछ आइडिया चाहती है।

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वित्त मंत्रालय से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक कई तरह के आर्थिक सलाहकार हैं। उनके आइडिया में ऐसी क्या कमी है जिसकी भरपाई ब्रांच स्तर के मैनेजर के आइडिया से की जा रही है? इस दौर में मूर्खों की कमी नहीं है। वे तुरंत आएंगे और कहेंगे कि यह तो अच्छा है कि सबसे पूछा जा रहा है। हो सकता है कि बैंकर भी ख़ुश होंगे। उनकी सेवा का एक सम्मान था लेकिन अब ये हालत हो गई है और इसके लिए वे ख़ुद भी ज़िम्मेदार हैं। टीवी के नेशनल सिलेबस ने उन्हें भी किसी काम का नहीं छोड़ा है। इसलिए ज़रूरी है कि हर बैंक में गोदी मीडिया के चैनलों को सुबह से ही चलाया जाए ताकि उन्हें आइडिया आता रहे कि भारत की अर्थव्यवस्था का आकार 5 ट्रिलियन डॉलर का कैसे किया जा सकता है।

सैलरी न बढ़ने से नए बैंकरों की हालत ख़राब है। तीन तीन साल की सैलरी हो गई है और तनख्वाह बहुत कम है। वे अपनी हताशा मुझे लिखते रहते हैं। मैंने दो महीने तक बैंक सीरीज़ चलाई थी। हमारे एक मित्र से एक बैंक मैनेजर ने कहा था कि चुनाव के बाद रवीश कुमार की शक्ल देखेंगे कि मोदी जी के जीतने पर कैसा लगता है। मैं सामान्य ही रहा। मैं मोदी जी को हराने तो नहीं निकला था लेकिन मूर्खता ने गोरखपुर की उस बैंक मैनेजर को ही हरा दिया। उनकी नागरिकता या नौकरी की यह हालत है कि ब्रांच में निबंध जैसा लिखवाया जा रहा है। आप सभी सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के चंगुल में फंस कर अपनी आवाज़ गंवा बैठे हैं। नैतिक बल खो चुके हैं। यही कारण था कि जो बैंकर संघर्ष करने निकले उन्हें बैंकरों ने ही अकेला कर दिया। उनका साथ नहीं दिया। क्या पता वे इस हालात से बहुत ख़ुश हों कि उनसे आइडिया मांगा जा रहा है। बैंकरों ने मुझे व्हाट्स एप मेसेज भेजा है, उसी के आधार पर यह सब लिख रहा हूं।

एक बार बैंक सीरीज़ पर लिखे सारे लेख पढ़ लें। मैं जिस नैतिक बल की घोर कमी की बात करता था उसे बैंकरों ने साबित कर दिया। अब कोई टीवी उन्हें नहीं दिखाएगा। उनकी नौकरी की शान चाहे जितनी हो मगर उन चैनलों पर उन्हें सम्मान नहीं मिलेगा जिन्हें देखते हुए वे अपना सब कुछ गंवा बैठे। फिर भी मैं फेसबुक पेज पर लिखता रहूंगा। टीवी पर नहीं करूंगा। दो महीना काफी होता है एक समस्या पर लगातार बात करना। सोशल मीडिया के असर का काफी हंगामा मचता रहता है, मैं भी देखना चाहता हूं कि यहां लिखने से क्या कोई बदलाव होता है। मुख्यधारा के मीडिया की भरपाई किसी दूसरे मंच से नहीं हो सकती है।

इस पूरे कवायद को सही बताने वाले कम नहीं होंगे मगर हंसा कीजिए कभी-कभी। यह ठीक ऐसा है कि प्रधानमंत्री चुनने से पहले निबंध लिखवाया जा रहा है कि यदि मैं प्रधानमंत्री होता। जो श्रेष्ठ निबंध लिखेगा उसे प्रधानमंत्री बना दिया जाने वाला है। अगर आपमें विवेक बचा है तो आप देख सकेंगे कि अंध राष्ट्रवाद के दौर में बैंकों के अफ़सरों की गरिमा कितनी कुचली जा रही है। उनसे आइडिया पूछना उनका अपमान है। फिर भी वे अपने रिश्तेदारों को भी नहीं बता पाते होंगे कि उनकी क्या हालत हो गई है। हाल में कुछ बैंकरों ने आत्महत्या की और कुछ की हत्या हुई। मगर बैंकर एकजुट होकर उन्हें ही इंसाफ़ न दिलवा सकें। बैंकरों का यह नैतिक और बौद्धिक पतन उन्हें कितना अकेला कर चुका है। बैंकरों से उम्मीद है कि इस फेसबुक पोस्ट को शेयर करें और सोशल मीडिया की ताकत की थ्योरी को साबित करें। मुझे तो दूसरे सामाजिक तबके के लोगों से बिल्कुल उम्मीद नहीं है कि वे बैंकरों की इस हालत को लेकर सहानुभूति जताएंगे। बैंकरों के साथ अच्छा नहीं हो रहा है। लेकिन उनकी हालत से यह साबित होता है कि अगर कोई चाहे तो बीस लाख पढ़े-लिखे लोगों की ऐसी हालत कर सकता है।

(लेखक मैग्सेसे पुरुष्कार से सम्मानित पत्रकार हैं, यह लेख उनके फेसबुक पेज से लिया गया है)

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